हलषष्ठी व्रत आज: इस दिन झूठ न बोलें व्रती, देखिए क्या सीख देती है ग्वालिन की कथा
इस बार हलषष्ठी व्रत 28 अगस्त, दिन शनिवार को पड़ रहा है। भाद्रपद माह के कृष्ण पक्ष की षष्ठी को यह व्रत त्योहार भगवान श्रीकृष्ण के बड़े भाई श्री बलरामजी के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन श्री बलरामजी का जन्म हुआ था। इस दिन माताएं अपनी संतान की लम्बी उम्र के लिए व्रत रखती हैं और विधि-विधान से पूजा पाठ कर उसके स्वास्थ्य और उज्ज्वल भविष्य का कामना करती हैं।
आचार्य अंकित कुमार मिश्र बताते हैं कि इस व्रत की खास बात यह है कि इस दिन जो महिलाएं व्रत रखती हैं, उन्हें जुता-बुआ खाना मना होता है। अर्थात कोई भी ऐसी चीज जो खेत में हुई हो और किसान ने हल चलाकर उस अन्न या फल को पैदा किया हो, उसे व्रती महिलाएं नहीं खा सकतीं। इस दिन महुआ की दातुन करनी चाहिए और जो अनाज या फल तालाब में उगा हो, उसे ही खाना चाहिए। इस व्रत में सात प्रकार के अनाज (गेहूं, चना, चावल, जौ, मकाई, ज्वार, बाजरा) से पूजा की जाती है।
व्रती खाएं ये चीज
तिन्नी का चावल, केर्मुआ का साग, पसही के चावल, मखाना आदि व्रती खा सकती हैं। इस व्रत में गाय के दूध, दही, गोबर आदि का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। बल्कि भैंस का दूध, दही और घी का प्रयोग किया जाता है, लेकिन महिलाएं परम्परागत भी इस व्रत को कर सकती हैं। अर्थात जैसे उनके घर में इस पर्व को मनाया जाता रहा है। इस दिन तालाब में उगी चीज इसीलिए खाई जाती है, क्योंकि यह व्रत बलराम जी का है और उन्हे हलधर भी कहते हैं। वह हमेशा हाथ में हल लिए रहते हैं। चूंकि इस दिन हल और हलधर की पूजा की जाती है, इसीलिए इस दिन हल से जुति हुई कोई भी चीज, मसलन साग-सब्जा या अन्न नहीं खाया जाता है।
दीवार पर बनाई जाती हैं छठ माता
इस दिन व्रती घर या घर के बाहर कहीं भी दीवार पर भैंस के गोबर से छठ माता का चित्र बनाती हैं। इसे के साथ गणेश जी और माता गौरा जी की भी पूजा की जाती है। कहीं-कहीं तो आज भी परम्परा है कि महिलाएं घर में ही तालाब बनाकर, उसमें झरबेरी, पलाश और कांसी के पेड़ लगाती हैं। इसके बाद उसी में बैठकर पूजा अर्चना करती हैं। साथ ही हल षष्ठी की कथा भी सुनती हैं। उसके बाद माता जी का आशिर्वाद लेकर पूजा समाप्त करती हैं। धार्मिक मान्यता है कि ऐसा करने से भगवान हलधर पुत्रों को लंबी आयु प्रदान करते हैं। इस दिन को लेकर एक ग्वालिन की कथा प्रचलित है। कथा के अनुसार हमें झूठ बोलकर किसी का धर्म भ्रष्ट नहीं करना चाहिए और न ही किसी को गलत राय देनी चाहिए। ऐसा करना हमें कष्ट में डाल सकता है।
हल षष्ठी की प्रचलित कथा
कथा को लेकर ऐसी मान्यता है कि प्राचीन काल में एक ग्वालिन थी। वह गर्भवती थी और उसका प्रसवकाल निकट आ रहा था। एक ओर जहां वह प्रसव पीड़ा की वजह से परेशान थी तो दूसरी ओर उसका मन दूध-दही बेचने कर कर रहा था। उसके मन में विचार आया कि यदि प्रसव हो गया तो गौ-रस यूं ही पड़ा रह जाएगा और खराब हो जाएगा। इस पर उसने दूध-दही के घड़े सिर पर रखकर उसे बेचने के लिए निकल पड़ी, लेकिन कुछ ही दूर पहुंचने पर उसे असहनीय प्रसव पीड़ा होने लगी। इस पर वह एक झरबेरी की आड़ में चली गई और एक बच्चे को जन्म दिया।
इसके बाद वह बच्चे को वहीं छोड़कर पास के गांवों में दूध-दही बेचने चली गई। संयोग से उस दिन हल षष्ठी थी। गाय-भैंस के मिले हुए दूध को केवल भैंस का दूध बताकर उसने सीधे-सादे गांव वालों को बेच दिया। उधर एक किसान खेत में हल जोत रहा था और पास ही ग्वालिन का बच्चा झरबेरी के नीचे लेटा हुआ था। अचानक किसान के बैल भड़क गए और हल का फल उछल कर बच्चे के शरीर में घुस गया, जिससे बच्चे की मौके पर ही मौत हो गई।
कुश और छिपुला के पेड़ की पत्तियां, इस पर प्रसाद रखकर चढ़ाया जाता है और प्रसाद भी इसी पर ग्रहण किया जाता है।
इस घटना से किसान बहुत दुखी हुआ। फिर भी उसने हिम्मत और धैर्य से काम लिया। उसने झरबेरी के कांटों से ही बच्चे के चीरे हुए पेट में टांके लगाए और फिर उसे वहीं छोड़कर चला गया। कुछ देर बाद ग्वालिन दूध बेचकर वहां पहुंचा तो जैसे ही उसने अपने बच्चे की दशा देखी वह समझ गई कि उसके गलत कार्यों का वजह से ही उसके बच्चे का ये हाल हुआ है। वह मन ही मन अपने किए कर्मों को कोस रही थी। कह रही थी कि भैंस के दूध को गाय का दूध बताकर महिलाओं को बेच दिया और उनका धर्म भ्रष्ट कर दिया। अब मुझे प्रायश्चित करना होगा।
व्रत सामान की खरीददारी करते लोग
इसके तुरंत बाद ही उसी गांव में पहुंच गई जहां उसने भैंस का दूध बेचा था। वह घूम-घूम कर अपने किए गलत कार्य को लोगों को बताने लगी। इस पर व्रती महिलाओं ने उसे माफ कर दिया। कई महिलाओं ने उसे आशीर्वाद भी दिया। इसके बाद रोते-रोते जब वह झरबेरी के पेड़ के पास पहुंची तो उसका बेटा जीवित अवस्था में लेटा हुआ था। इसके बाद से उसने कभी भी झूठ न बोलने का निश्चय किया। (यह लेख हिंदू मान्यताओं व परम्पराओं पर आधारित है। इसका उद्देश्य अंधविश्वास को बढ़ावा देना नहीं है।)