Tulsi Vivah: यहां पढ़ें तुलसी विवाह की कथा-आरती व मंत्र…जानें माता तुलसी कैसे बनीं विष्णुप्रिया?

November 11, 2024 by No Comments

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Tulsi Vivah: कार्तिक शुक्ल एकादशी यानी देव उठनी एकादशी को ही तुलसी विवाह का आयोजन किया जाता है. सनातन धर्म को मानने वाले लोग इस दिन जिस तरह कन्या का विवाह होता है, ठीक उसी तरह तुलसी के पौधे का विवाह शालिग्राम यानी भगवान विष्णु से करते हैं. मालूम हो कि सनातन धर्म में तुलसी के पौधे को माता का दर्जा दिया गया है और ये सनातन धर्म के लोगों के हर घर में पूजनीय है.

मालूम हो कि देवउठनी एकादशी को ही भगवान विष्णु भी चार मास की निद्रा से जागते हैं। इसीलिए इस दिन को देवउठनी, देवोत्थानी व हरिप्रबोधिनी एकादशी भी कहा जाता है। इस बार देवउठनी एकादशी 12 नवम्बर को है और इसी दिन तुलसी विवाह सम्पन्न होगा।

आचार्य सुशील शास्त्री बताते हैं कि एकादशी को ही शालिग्राम से साथ तुलसी माता (पौधे) का विवाह करने का विधान शास्त्रों में दिया गया है। हालांकि कुछ लोग कार्तिक पूर्णिमा वाले दिन भी तुलसी विवाह करते हैं। वैसे तो हिंदू धर्म में कार्तिक पूर्णिमा पर ही तुलसी विवाह की पद्धति प्रचलित है। भले ही लोगों को तुलसी का पौधा एक साधारण सा पौधा लगे, लेकिन भारतीयों व हिंदुओं के लिए यह गंगा-यमुना की तरह ही पवित्र है। बिना तुलसी दल (पत्ती) के भगवान विष्णु की पूजा का कार्यक्रम भी सम्पन्न नहीं हो सकता है. हालांकि एकादशी वाले दिन तुलसी दल यानी तुलसी की पत्ती नहीं तोड़ी जाती है. ऐसे में एकादशी से एक दिन पहले ही तुलसी दल तोड़कर रख लेना चाहिए.

जानें क्यों कहा जाता है माता तुलसी को विष्णु प्रिया

आचार्य सुशील कृष्ण शास्त्री बताते हैं कि तुलसी जी को विष्णु प्रिया भी कहा गया है। इसके लिए एक पौराणिक कथा प्रचलित है। वैसे तो तुलसी जी के विवाह के लिए कार्तिक शुक्ल नवमी तिथि सबसे ठीक मानी गई है। धर्म शास्त्रों की मानें तो नवमी, दशमी, एकादशी को व्रत एवं पूजन कर दूसरे दिन तुलसी का पौधा किसी ब्राह्मण को दान करना शुभ होता है, लेकिन कुछ लोग एकादशी से पूर्णिमा तक तुलसी पूजन करके पांचवें दिन तुलसी की विवाह करते हैं। तुलसी विवाह की यही पद्धति भारतीयों में अधिक प्रचलित है। इसलिए अगर किसी वजह से एकादशी को तुलसी विवाह नहीं कर सके हैं तो पूर्णिमा को माता तुलसी का विवाह विष्णु भगवान के पत्थर रूप शालिग्राम से कर सकते हैं। कहते हैं कि तुलसी के पौधे को प्रतिदिन जल देना स्वास्थ्य के लिए उत्तम रहता है। तुलसी के कारण आस-पास की वायु भी शुद्ध रहती है, साथ ही औषधि के लिए भी तुलसी का पौधा अत्यंत गुणकारी माना गया है।

आरती

जय जय तुलसी माता, जय तुलसी माता
जब जग की सुखदाता, वरदाता।।
जय जय तुलसी माता।

सब योगों के ऊपर, सब रोगों के ऊपर।
रुज से रक्षा करके भव त्राता।।
जय जय तुलसी माता।

बहु पुत्री हे श्यामा, सुर बल्ली हे ग्राम्या।
विष्णु प्रिये जो तुमको सेवे, सो नर तर जाता।।
जय-जय तुलसी माता।

हरि के शीश विराजत त्रिभुवन से हो वंदित।
पतित जनों की तारिणी, तुम हो विख्याता।।
जय-जय तुलसी माता।

लेकर जन्म विजन में आई दिव्य भवन में।
मानव लोक तुम्हीं से सुख-सम्पत्ति पाता।।
जय-जय तुलसी माता।।

तुलसी माता का मंत्र

वृंदा वृंदावनी, विश्वपूजिता, विश्वपावनी।
पुष्पसारा, नन्दनी च तुलसी, कृष्णजीवनी।।
एत नाम अष्टकं चैव स्त्रोत्र नामार्थ संयुतम।
य: पठेत तां सम्पूज्य सोभवमेघ फलं लभेत।।

मंत्र का अर्थ

वृंदा वृंदावनी, विश्वपूजिता, विश्वपावनी, पुष्पसारा, नन्दनी तुलसी और कृष्णजीवनी, ये तुलसी के 8 प्रिय नाम हैं। जो कोई भी तुलसी की पूजा करके इस नामाष्टक का पाठ करता है, वह अश्वमेघ यज्ञ का फल प्राप्त करता है।

पौराणिक कथा

मान्यता है कि पौराणिक काल में जालंधर नाम के राक्षस ने इतना उत्पात मचाया था कि देवताओं और ऋषि-मुनियों का भी जीना मुश्किल हो गया था। उसकी पत्नी वृंदा ही उसकी वीरता की रहस्य थी। वृंदा भगवान विष्णु की परम भक्त थी और दिन-रात पूजा में लगी रहती थी। उसकी पूजा से भगवान विष्णु अत्यंत प्रसन्न थे और हमेशा उसके सुहाग की रक्षा किया करते थे। इसी वजह से जालंधर को कोई हरा नहीं पाता था। जालांधर से परेशान होने के बाद एक दिन देवता व ऋषि-मुनि भगवान विष्णु के पास रक्षा करने की गुहार लगाने पहुंचे। इस पर भगवान विष्णु ने वृंदा का पितव्रता धर्म भंग करने का निश्चय लिया। उन्होंने योगमाया द्वारा एक मृत शरीर वृंदा के आंगन में फिंकवा दिया। माया का पर्दा पड़ा होने के कारण वृंदा को वह शव अपने पति का शव दिखाई दिया। यह देखकर वृंदा रोने लगी। इतने में एक साधू आए और उन्होंने कहा कि वह मृत शरीर में जान डाल देंगे।

इसके बाद साधू ने मृत शरीर में जान डाल दी और वृंदा भाव से भर गईं और मृत शरीर का आलिंगन कर लिया, जिससे उनका पतिव्रता धर्म नष्ट हो गया। बाद में वृंदा को भगवान का यह छल मालूम हो गया। दूसरी ओर वृंदा का पतिव्रता धर्म नष्ट होते ही जालांधर युद्ध में देवताओं द्वारा मार दिया जाता है। इस पर वृंदा ने क्रोधित होकर भगवान विष्णु को श्राप दिया कि जिस तरह तुमने मुझे पतिवियोग दिया है उसी तरह तुम भी अपनी स्त्री के छल पूर्वक हरण होने के बाद स्त्री वियोग सहोगे और मृत्युलोक में जन्म लोगे। यह कहकर वृंदा अपने पति के साथ सती हो गई। इस पर भगवान विष्णु लज्जित हुए और फिर लक्ष्मी जी ने वृंदा की चिता राख में आंवला, तुलसी व मालती के पौधे लगाए। विष्णु जी ने तुलसी को ही वृंदा का रूप समझा और अपने पत्थर रूप शालिग्राम के साथ पूजे जाने का वरदान दिया। ये तो सभी को मालूम है कि भगवान राम विष्णु जी का ही अवतार हैं और माता सीता के छल से हरण के बाद उनको स्त्री वियोग सहना पड़ा था। कहीं-कहीं यह भी कथा प्रचलित है कि वृंदा ने ही विष्णु जी को पत्थर का हो जाने का श्राप दिया था। एक बार वृंदा से विष्णु जी बोले कि तुम मुझे लक्ष्मी से भी अधिक प्रिय हो गई हो। यह तुम्हारे सतीत्व का ही फल है कि तुम मेरे साथ तुलसी बनकर सदा रहोगी। जो लोग मेरे साथ तुम्हारा विवाह करेंगे, वो मोक्ष को प्राप्त होंगे। तभी से शालिग्राम और तुलसी विवाह की परम्परा चली आ रही है। विष्णु भगवान की किसी भी पूजा में अगर तुलसी दल न हो तो पूजा अधूरी मानी जाती है। तुलसी और विष्णु जी को लेकर अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं।

DISCLAIMER:यह लेख धार्मिक मान्यताओं व धर्म शास्त्रों पर आधारित है। हम अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं देते। किसी भी धार्मिक कार्य को करते वक्त मन को एकाग्र अवश्य रखें। पाठक धर्म से जुड़े किसी भी कार्य को करने से पहले अपने पुरोहित या आचार्य से अवश्य परामर्श ले लें। KhabarSting इसकी पुष्टि नहीं करता।)

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